इंटरसेक्शनलधर्म देवी की माहवारी ‘पवित्र’ और हमारी ‘अपवित्र?’

देवी की माहवारी ‘पवित्र’ और हमारी ‘अपवित्र?’

आषाढ़ के महीने में गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर की देवी को माहवारी होती है। देवी को होने वाली इस सालाना माहवारी का भक्त पूरे साल इंतज़ार करते हैं।

भारतीय संस्कृति में महिला को हमेशा से देवी के समान बताया गया है| ‘देवी’ मतलब ‘शक्तिशाली’, ‘पवित्र’ और ‘माँ स्वरूप’| देवी के इन्हीं गुणों के चलते उनकी पूजा की जाती है और इन्हीं गुणों से महिला की तुलना करके भी उन्हें हमारे धर्मग्रन्थों में पूजनीय बताया गया| गुजरते वक़्त के साथ ढ़ेरों बातों-चलन में बदलाव आया है| लेकिन ‘महिला’ और ‘देवी’ की प्रस्थिति में कोई बदलाव नहीं आया| देवी माँ के नामपर आज भी हमारी भक्ति पहले जैसे (या यों कहें कि देखने में पहले से ज्यादा) और महिला की स्थिति बद से बदतर है| हो सकता आप मेरी इस बात से सहमत न हो| तो आइये अपनी बात को पुख्ता करने के लिए महिला से जुड़े ऐसे मुद्दे पर बात करें जिसका ताल्लुक देवी से भी है| लेकिन देवी की प्रक्रिया को पवित्र और महिला की प्रक्रिया को अपवित्र माना जाता है- यानी कि माहवारी/ पीरियड/ मासिकधर्म|

आषाढ़ के महीने में गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर की देवी को माहवारी होती है। देवी को होने वाली इस सालाना माहवारी का भक्त पूरे साल इंतज़ार करते हैं। चार दिन तक मंदिर बंद रहता है और कोई भी देवी के दर्शन नहीं कर सकता। मंदिर की देवी की अनुमानित योनि के पास पुजारी साफ़-नए कपड़े रखते हैं और चार दिन बाद ‘खून’ से भीगा यह कपड़ा भक्तों के बीच प्रसाद के तौर पर बांट दिया जाता है। इस कपड़े का प्रसाद में मिलना बड़ी क़िस्मत की बात मानी जाती है और इसलिए इसे लेने-मांगने की चाह वालों की तादाद भी काफ़ी ज़्यादा होती है। डिमांड के हिसाब से सप्लाई के लिए कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते हैं ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को यह माहवारी वाला दिव्य प्रसाद नसीब हो सके।

कामाख्या देवी का मन्दिर

माना जाता है कि देवी को हो रही माहवारी के कारण ही ब्रह्मपुत्र का पानी भी उन चार दिनों के लिए लाल हो जाता है। इस बारे में कई अफ़वाहें भी हैं। कई लोगों का मानना है कि मंदिर के पुजारी ख़ुद ही घटना का वज़न बढ़ाने के लिए ब्रह्मपुत्र के पानी में हर साल इस दौरान रंग डाल देते हैं। ख़ैर, जो भी हो इतना तो तय है कि देवी के खून से सने कपड़ों से लेकर ब्रह्मपुत्र के पानी तक, लोग श्रद्धा से ख़ुद को बेहद ख़ुशक़िस्मत मानकर देवी की माहवारी का जश्न मनाते हैं।

मैं नौ साल की थी जब पहली बार मुझे पीरियड्स हुए थे। बहुत छोटी थी तो पहले-पहल समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है? दुर्गापूजा का समय था और शायद दूसरा दिन था। सुबह-सुबह मेरा भाई पूजा के लिए गुड़हल के फूल तोड़ रहा था। मैंने पीले रंग की एक स्कर्ट पहनी थी जिसपर हाथी और पालकी की ख़ूबसूरत तस्वीरें बनी थीं। मेरे भाई ने मेरी स्कर्ट पर कुछ लाल-सा लगा देखा और मुझसे पूछा कि क्या लगा है।

पीरियड्स में अगर कपड़े गंदे हुए मतलब अगर कहीं किसी ने खून लगा देख लिया तो शर्मिंदगी की बात है।

मैंने देखा और सोचा कि शायद गुड़हल का लाल रंग लग गया होगा। बाद में नहाते समय अपने कपड़े देखे तो डर गई। इतना सारा खून पहले कभी नहीं देखा था। भागकर मां के पास आई और मां को दिखाकर पूछा कि क्या हुआ है। मां चौंकी शायद सोच रही होंगी कि इतनी जल्दी कैसे हो गया। फिर उन्होंने समझाया कि कोई बात नहीं, एक उम्र के बाद सबको होता है। मां ने बताया कि कैसे-कैसे क्या करना है और किन बातों का ख्याल रखना है। उन्होंने किसी को भी इसके बारे में बताने से मना किया| मैंने मन में सोचा कि जब सबको ही होता है तो किसी से राज़ रखने की क्या ज़रूरत? उसके पहले मां हर रोज सांझ का दिया दिखाते हुए ज़बरदस्ती खुद के साथ मुझे शामिल करती थीं।

कामख्या देवी की मूर्ति

दुर्गापूजा के पूरे नौ दिन घर भर का रूटीन बदल जाता था। पूरा घर सुबह अंधेरे ही उठ जाता था। फूल तोड़ने से लेकर घर की सफ़ाई के सारे काम जल्दी निपटा लिए जाते थे। मिट्टी के दिये बनाए जाते थे। इन दियों को शाम में जलाया जाता था। दोनों समय लंबी पूजाएं होती थीं, और दोनों ही समय आरती हुआ करती थी। आरती के बाद शंख बजता था और सबको प्रसाद मिलता था। पूजा के लिए इस दौरान अलग जगह होती थी, जहां मिट्टी के एक छोटे-से चबूतरे पर जौ के दाने डाले जाते थे। दशहरे वाले दिन तक उसमें अंगुली भर तक लंबी जौ उग जाती थी। इसे जयंती कहा जाता था। इसे सिर पर रखने के अलावा, पुरुष कान में फंसाते थे और हम बच्चों को इसे अपनी किताबों में रखने को कहा जाता था। उस साल पूजा के दूसरे दिन सुबह-सुबह मुझे पीरियड्स हुए थे। दर्द और अजीब से लिजलिजेपन के अलावा जो सबसे पहला अंतर मुझे महसूस हुआ वह था मां का मुझे पूजा में शामिल ना करना।

कामाख्या देवी की कथित माहवारी के कपड़े प्रसाद में लेने के लिए जिनके हाथ बड़ी श्रद्धा में पसर कर ख़ुद को कृतार्थ मानते हैं| वही लोग अपने घर की लड़कियों और महिलाओं को उनकी माहवारी में गंदा मानकर कैसे अछूत मान लेते हैं|

पूजा न करने की बात से हुई पाबंदियों की शुरुआत

हालांकि पहले जब मां ज़बरदस्ती शामिल करती थीं तब मुझे चिढ़ होती थी| लेकिन अब जब नियम बनाकर पीरियड्स के दौरान भगवान को छूने या फिर पूजा के किसी भी काम में शामिल न होने को कहा गया तब मुझे अखर रहा था। पूजा ना करना मेरे लिए मुद्दा नहीं था, ज़बरदस्ती ना करने को कहना मुद्दा था। फ़िर पता चला कि हर कोई इसी नियम से चलता है। क्लास में दोस्तों से पूछा तो उनसे पता चला कि उनके यहां भी यही नियम है। मेरी कई दोस्त मारवाड़ी समुदाय की थीं। उनके यहां तो नियम और भी सख़्त थे। पीरियड्स के दौरान महिलाओं और लड़कियों को रसोई में जाने, घर के रोज़ाना के बर्तनों में खाने, बिस्तर पर सोने या घर की किसी चीज को हाथ लगाने तक की मनाही थी। मुझे समझ ही नहीं आया तब कि इस बात का मतलब और तुक क्या है? अजीब था बस मेरे लिए। एक तो मुझे उतना ही पता था जितना मां ने बताया था। इतना सा कि एक उम्र में आने के बाद सबको होता है। बस। और कुछ नहीं। और पता था कि कैसे रहते हैं। समय-समय पर देखना होता था कि पैड बदलने की ज़रूरत तो नहीं है, कपड़े में तो नहीं लगा वग़ैरह-वग़ैरह। मुझे यह सब बहुत बड़ी एक मुसीबत ही लगती थी। पहले कभी स्कूल में खेलते वक़्त सोचना नहीं होता था। धूल-मिट्टी, कीचड़, इंक… इन सबसे कपड़े रोज़ ही गंदे होते थे, लेकिन कोई मज़ाक नहीं उड़ाता था।

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पीरियड का ‘दाग़’ मतलब ‘शर्मिंदगी’

मुझसे कहा गया था कि पीरियड्स में अगर कपड़े गंदे हुए मतलब अगर कहीं किसी ने खून लगा देख लिया तो शर्मिंदगी की बात है। मैंने छोटी क्लास में कई बच्चों को यूनिफॉर्म में ही पेशाब करते देखा था। मुझे पता था कि ऐसा करने पर मजाक उड़ता है। पर पीरियड्स में कपड़े पर हल्का-सा भी निशान न लग जाए यह मेरे वश में नहीं था।

एक दिन की बात तो थी नहीं, हर महीने की चीज़ थी। इतना संभालना मुश्किल था। चिढ़ होती थी मुझे। एक तो दर्द, ऊपर से इतना फूंक-फूंक कर चलना-रहना और उससे भी बढ़कर ऐसे-न-करो-वैसे-न-करो की टोकाटाकी। हुआ फिर यह कि कुछ महीने बाद मैंने मां को बताना ही बंद कर दिया। मां को जब पता ही नहीं चलता तो फिर अपनी आदत के मुताबिक़ वह मुझे पूजा में शामिल करतीं। पहले-पहल अंदर धुकधुकी-सी लगी रहती थी। छोटी ही थी सो लगता था कि कहीं देवता नाराज़ न हो जाएं। पर मेरा रिज़ल्ट भी वैसा ही आया जैसा आता था। सबकुछ मस्त था ज़िदगी में, वैसा ही जैसा हुआ करता था। तब लगा कि अरे, भगवान को तो कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ा पीरियड्स में मेरे हाथों छू लिए जाने पर। फ़िर तो आदत ही बन गई। मां पूछती थीं कई बार, फ़िर उनको लगता था कि मैं शर्मा रही हूं इसलिए नहीं बताती हूं।

और मर्दों का पीरियड से कन्नी काट लेना

मुझे यह सब अपनी बेइज़्ज़ती जैसा लगता था। महिलाओं को पीरियड के दौरान ऐसा महसूस करवाया जाता है कि वे गंदी हो गई हैं इस दौरान और स्वाभाविक ज़िंदगी नहीं जी सकतीं।  कामाख्या देवी की कथित माहवारी के कपड़े प्रसाद में लेने के लिए जिनके हाथ बड़ी श्रद्धा में पसर कर ख़ुद को कृतार्थ मानते हैं| वही लोग अपने घर की लड़कियों और महिलाओं को उनकी माहवारी में गंदा मानकर कैसे अछूत मान लेते हैं| यह मेरी समझ के बाहर है। पुरुष कहेंगे कि घर की औरतों का मामला है| औरतें ही मानती हैं और औरतें ही मनवाती हैं। ऐसी बातों से वो इस मुद्दे से कन्नी काट लेते है|

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इंसान से लेकर जानवर तक ज़ारी है ‘लैंगिक भेदभाव’

कितना अज़ीब है ये दोहरापन| औरतों के साथ तो भेदभाव है ही। जानवर भी इससे अछूते नहीं हैं। दुकानों में कुत्ते बिकते हैं। नस्ल के हिसाब से क़ीमत तय होती है। वहां भी कुत्ते की क़ीमत ज्यादा होती है। कुतिया की क़ीमत कम होती है। आप में से अगर किसी के पास कभी कुतिया रही हो तो आप जानते होंगे कि उसको भी माहवारी होती है। वो पैड तो लगा नहीं सकती, सो जहां बैठती है, वहीं टपकता रहता है। लोगों को इससे आपत्ति है। यह नहीं कि उसे एक चादर दे दें, लोगों को बस घृणा आती है। इसलिए कुतिया पालने से आपत्ति है, और इसलिए ही उनकी क़ीमत कम होती है। गाय का मामला अलग है। गाय क्योंकि दूध देती है इसलिए उसकी क़ीमत और उसका मान ज़्यादा होता है। कहावत है ना कि दुधारु गाय की लात भी सही… वैसे ही। दिक़्क़त बस यही है कि जो लोग देवी की माहवारी को श्रद्धा से देखते हैं, वे यह सब कैसे कर पाते हैं। देवी आपके बच्चे नहीं जनेंगीं, ना ही वह आपका घर और आपका परिवार संभालेंगी। फ़िर क्यों है देवी की गंदगीपर इतनी श्रद्धा? और जिस देवी को खुद यह ‘गंदगी’ होती हो, वह किसी और लड़की या महिला के अपने माहवारी के दौरान छू दिए जाने से कैसे गंदी हो सकती है? इसपर हमें सोचने की ज़रूरत है|

श्रोत : नवभारत टाइम्स


तस्वीर साभार : The editor.in  

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